This article originally appeared in NBT
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) सन 1988 में इसलिए बना, ताकि वह समय-समय पर जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया के शीर्ष नेताओं को साइंटिफिक नजरिया दे सके। पिछले 34 सालों में आईपीसीसी ने पांच रिपोर्ट जारी की हैं और अब वह छठी रिपोर्ट पब्लिश कर रहा है। इस रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा कुछ दिन पहले आया है, जिसकी इन दिनों काफी चर्चा हो रही है। चर्चा इसलिए क्योंकि इसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और अनुकूलन पर सबसे व्यापक रिपोर्ट माना जा रहा है। इस लेख में हम इस रिपोर्ट से निकली दस जरूरी चीजों पर चर्चा करेंगे।
यह कैसा विकास
आईपीसीसी की छठी रिपोर्ट का पहला निष्कर्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पिछली पांच रिपोर्टों में बताई चेतावनियों से कहीं ज्यादा है और संकट के अनुकूल हो पाना हमारी सोच से भी अधिक कठिन होगा। दूसरी खोज यह है कि जलवायु परिवर्तन अब प्रकृति का विनाश कर रहा है। जमीन या समुद्र में जो जीव-जंतु या पेड़-पौधे हैं, उन्हें इतना ज्यादा नुकसान हो चुका है कि कहीं-कहीं तो इसकी भरपाई ही नहीं हो सकती। सैकड़ों विलुप्त जीव-जंतु अब कभी वापस नहीं आएंगे। रिपोर्ट कहती है कि अगर तापमान 1.5 डिग्री से ज्यादा बढ़ा तो ऐसी चीजें होंगी, जिन्हें हम सैकड़ों सालों में भी ठीक नहीं कर पाएंगे। समुद्र में मूंगों की चट्टानें खराब हो जाएंगी। सुंदरवन जैसी जगहें बर्बाद हो जाएंगी। हमारे नॉर्थ-ईस्ट और वेस्टर्न घाट पर जो वर्षा वन हैं, वे तबाह हो जाएंगे। हिमालय के ग्लेशियर और इको सिस्टम ऐसे खराब होंगे कि फिर कभी रिकवर नहीं कर पाएंगे।
तीसरा निष्कर्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन अब इंसानों की सेहत, शांति और संपदा पर प्रभाव डाल रहा है। इसने दुनिया भर में लोगों के शारीरिक और कुछ क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। जल जनित और वेक्टर जनित रोगों की घटनाओं में वृद्धि हुई है। हृदय और सांस की बीमारियां भी बढ़ गई हैं। अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और अन्य चरम मौसम की घटनाओं के कारण दुनिया भर में लोगों की मौतें हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन गरीब को और गरीब बना रहा है। घर के बाहर मेहनत-मजदूरी करना गरीब की जीविका है। भीषण गर्मी ने उनके काम के घंटे घटा दिए हैं, जो आगे और भी कम होंगे और उसी हिसाब से उनकी आय घटती जाएगी। इसी तरह, जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा आर्थिक नुकसान कृषि, वानिकी, मत्स्य पालन, ऊर्जा और पर्यटन में होगा, जो गरीबों को सबसे अधिक रोजगार देता है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन सभी क्षेत्रों में विस्थापन को बढ़ावा देकर मानवीय संकट को बढ़ा रहा है। धीरे-धीरे ऐसे सबूत सामने आ रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग पानी और उपजाऊ भूमि जैसे संसाधनों की कमी पैदा करके संघर्षों में इजाफा कर सकती है।
चौथा निष्कर्ष है कि इससे भारत जैसे देश सबसे बुरी तरह प्रभावित होंगे। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हर जगह समान नहीं होगा। सबसे ज्यादा प्रभाव वहां होगा, जहां गरीबी और शासन की चुनौतियां हैं, छोटे किसान ज्यादा हैं, लोगों की आवश्यक सेवाओं और संसाधनों तक पहुंच कम है। रिपोर्ट कहती है कि विश्व के 330 से 360 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं। भारत को लेकर अलग से इसमें कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है, लेकिन साफ दिख रहा है कि भारत सबसे बुरी तरह से प्रभावित है।
रिपोर्ट का पांचवां बिंदु यह है कि अफ्रीका और एशिया में तेजी से विकसित होते शहरों में हीटवेव और बाढ़ की समस्या बढ़ेगी, पीने के पानी की कमी होगी। छठी खोज यह है कि अब हम वहां पहुंच रहे हैं, जहां से वापसी मुश्किल है। अब जलवायु परिवर्तन इतना जटिल हो चुका है कि उसे सही कर पाना कठिन होता जा रहा है। जलवायु से जुड़े कई खतरे एक साथ आएंगे। कई जलवायु और गैर-जलवायु जोखिम आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया करेंगे, जिससे असहनीय स्थिति पैदा होगी। उदाहरण के लिए, भारत के विभिन्न हिस्सों में बाढ़, सूखा, जंगल की आग और गर्मी की लहरें जैसी स्थिति एक साथ आ सकती हैं, जो जटिल समस्याएं पैदा करेंगी।
सातवां यह कि ग्रीन हाउस गैसों को कम करना ही बेहतर रास्ता है। क्योंकि तापमान अगर डेढ़ डिग्री तक बढ़ा, तो फिर जो कुछ भी सामने आएगा, उसे हम मैनेज नहीं कर पाएंगे। आठवां निष्कर्ष अच्छी विकास प्रथाओं के बारे में है। रिपोर्ट का कहना है कि मुश्किल इसलिए भी आ रही है क्योंकि हमारी नीतियां और उनका क्रियान्वयन टिकाऊ नहीं है। जितना चाहते हैं, जमीन घेर लेते हैं, पानी या कोयला निकाल लेते हैं, जंगल काट डालते हैं। प्रदूषण अलग बढ़ा रहे हैं। इसकी जगह हमें अच्छी विकास प्रथाएं लागू करनी होंगी। जैसे कि शहर में बाढ़ कम करनी है तो शहर के ताल-तलैया और नदियां पुनर्जीवित करिए। शहर में ऐसी जगहें हों, जहां कोई निर्माण ना हो। गांवों में भी सूखा कम करना है तो वर्षा जल संचयन और मिट्टी की नमी सहेजनी होगी।
नौंवी और इस रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब आप प्रकृति को अकेला छोड़ दीजिए, इसी में आपकी भलाई है। अभी विश्व में हम लगभग 15 फीसदी जमीन, 21 फीसदी मीठे पानी के स्रोत और 8 फीसदी समुद्र संरक्षण करते हैं। रिपोर्ट का कहना है कि बचने के लिए अब हमें 30 से 50 फीसदी जमीन, फ्रेश वॉटर और समुद्र को छोड़ देना पड़ेगा। एक समय भारत में भी नो गो एरिया की बात हो रही थी कि वहां इंसान नहीं घुसेगा। अब ऐसे ही इलाके और बढ़ाने होंगे।
सब जुड़ेंगे, तभी बचेंगे
दसवां और आखिरी बिंदु यह है बिना राजनीतिक इच्छाशक्ति के हम इस समस्या को हल नहीं कर सकते। अब किंतु-परंतु या सवाल का समय नहीं है। नए कानून बनाने पड़ेंगे, नई नीतियां भी, ताकि सब मिलजुल कर काम कर सकें। कंपनियों और सिविल सोसायटी का बहुत बड़ा रोल होगा, क्योंकि अब ये सिर्फ सरकारों के बस की बात नहीं। सब लोग जुड़ेंगे, तभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कुछ कम हो सकते हैं।
(लेखक आईफॉरेस्ट के सीईओ हैं)
Chandra Bhushan is one of India’s foremost public policy experts and the founder-CEO of International Forum for Environment, Sustainability & Technology (iFOREST).